जाति और धर्म हमारे देश में लोगों की पहचान से जुड़ा मुद्दा है। पहले समाज में
इस तरह के जुमले खुलेआम प्रयोग किये जाते थे कि अमुक व्यक्ति उच्च जाति का है,
अमुक निम्न जाति का है। अमुक जाति के व्यक्ति को यह काम नहीं करना चाहिए या अमुक
जाति का होकर भी अमुक व्यक्ति यह काम करता है। कुल मिलाकर आजादी के पूर्व जातिवाद
अपने विभत्स रुप में था। आजादी के बाद स्थिति बिल्कुल सुधर गई हो ऐसा नहीं कहा जा
सकता, फिर भी हम देखते हैं कि शिक्षा के प्रचार-प्रसार और संविधान से मिले समानता
के अधिकार की वजह से लोगों में कुछ जागरुकता आई है।
छूआछूत के खिलाफ गांधी जी
के प्रयत्नों और अम्बेडकर जी कार्यों की आज भी सराहना होती है। हमारे महापुरुषों
के योगदान हमें जात-पात का भेद भुलाकर एक होने की प्रेरणा देते हैं फिर भी समाज
में जातिवाद की समस्या खत्म क्यों नहीं हो रही है? इस विषय पर
विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि हमारे समाज से जातिवाद के खत्म न होने के पीछे बहुत
हद तक हमारे देश का राजनैतिक और जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त बौद्धिक (लेखक) वर्ग
जिम्मेदार है। हमारे देश में कई राजनीतिक दल जातियों के आधार पर टिके हैं। किसी पर
अगड़ी जातियों की पार्टी होने का नाम चस्पा है तो, कोई पिछड़े वर्ग का नेता कहलाता
है, कोई दलितों का मसीहा बनता फिरता है तो कोई अगड़ा-पिछड़ा समीकरण बनाकर अपनी
राजनैतिक नैया खेता नजर आता है। हालांकि प्रत्येक राजनीतिक दल समाज के सभी वर्गों
का वोट हासिल करना चाहता है फिर भी जाति विशेष के नेतृत्व और उसी पर सर्वाधिक
भरोसे की वजह से कोई न कोई विशेष राजनीतिक दल समय-समय पर कोई न कोई ऐसा बयान या
नीति जारी कर ही देता है जिससे उसके विरोधी विचारों वाले दल भड़क जाते हैं और उनके
समर्थक सड़कों पर उतर आते हैं। एक दल के समर्थकों के प्रतिउत्तर में दूसरे दल के
समर्थक भी मैदान में उतरने से गुरेज नहीं करते। परस्पर विरोधी बयानों और आंदोलनों
की वजह से जातिवाद की खाई पहले की अपेक्षा और चौड़ी हो जाती है। फेसबुक-ट्विटर और
ब्लॉग जैसे सामाजिक माध्यमों के दुरुपयोग से यह खाई कम होने का नाम ही नहीं ले
रही। अपनी जाति के नेता के बयान या चुनावी जीत-हार पर उसके समर्थक इन माध्यमों पर
कठोर शब्दों में विरोधियों पर हमला बोलते हैं और अपनी खुशी का इजहार करते नज़र आते
हैं। बदले में विरोधी खेमे के समर्थक भी नफरत फैलाने वाले शब्दों और जुमलों के साथ
उसी अंदाज में जवाब देते हैं। जातिवाद की खाई को फैलाने का ये युद्ध सामाजिक
माध्यमों पर तब तक चलता रहता है जब तक कोई नया मुद्दा न आ जाए।
शिक्षित युवाओं में जातिवाद को
लेकर एक दूसरे से नफरत करना बहुत ही गंभीर समस्या है। प्रायः हमारे युवा एक दूसरे
की सफलता-असफलता पर सच्चे मन से साथ रहते हैं। जीत पर बधाई और हार पर दिलासा देना
हमारी परंपरा रही है। कोई भी छात्र अपनी कक्षा में प्रथम आता है या कोई भी खिलाड़ी
क्रिकेट में सर्वाधिक रन बनाता है, फुटबाल में सर्वाधिक गोल करता है या अन्य किसी
भी क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन करता है तो उसके प्रदर्शन के आधार पर उसकी तारीफ होती
है। इस बीच आज समाज में लेखकों का एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है जो जातियों के आधार
पर प्रदर्शन को आंकने लगा है और उसी आधार पर वह तारीफों के पुल बांधता है। ऐसे
लेखक किताबों, समाचार पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त सामाजिक माध्यमों की सहायता से
अपने जाति आधारित विश्लेषण प्रस्तुत करने लगे हैं। सामाजिक माध्यमों पर ऐसे
विचारों का प्रचार-प्रसार और प्रतिक्रियाएं बड़ी ही तेजी से हो रही हैं। जिसका
दुष्परिणाम जाति के आधार पर एक-दूसरे से नफरत करने, एक-दूसरे के सुख-दुख में
भागीदार न होने के रुप में आ रही है। कुछ लेखक जातिवादी मानसिकता से ग्रसित होकर
मीडिया, खेल, सिनेमा, शिक्षा, रोजगार आदि क्षेत्रों में जाति विशेष के लोगों की
संख्या और स्थिति का आंकलन करते हैं और उसका विश्लेषण नमक-मिर्च लगाकर नफरत फैलाने
वाले शब्दों में करते हैं। महापुरुषों तक को ये लोग जातियों के आधार पर बांट लेते
हैं। एक जाति के महापुरुष या प्रतीक को, दूसरे जाति के महापुरुष या प्रतीक के
दुश्मन के रुप में दिखाया जाता है। जिन्हें अपने लेखों और सुविचारों का प्रचार
प्रसार दूर-दराज के गांवों में जागरुकता फैलाने के लिए करना चाहिए वे लोग
स्कूल-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में शिक्षित लड़के-लड़कियों को साजिश के तहत अपना
कुत्सित बौद्धिक ज्ञान देते हैं। इनके द्वारा नफरत फैलाने वाले साहित्य बांटे जाते
हैं। ये खुद को इन विद्यार्थियों का मार्गदर्शक बना लेते हैं और दूसरे जाति के
लोगों द्वारा किसी समय विशेष पर किये गये किसी प्रकार के अत्याचार को सार्वभौमिक
सत्य बताकर दूसरे जाति के खिलाफ इन्हें भड़काते हैं और इनके नैसर्गिक विकास में
बाधा बन जाते हैं। प्रायः यह भी देखने को मिलता है कि दूसरों को ज्ञान देने वाले
नेता और सामाजिक चिंतक अपना नीजि फायदा देखते ही विरोधी खेमे के शीर्ष नेतृत्व से
हाथ मिला लेते हैं और उनके समर्थक खुद को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं। ऐसे में समाज
के शिक्षित युवाओं की यह जिम्मेदारी है कि शिक्षा का यथासंभव प्रचार-प्रसार करें
और नफरत फैलाने वाले लोगों को अपना मार्गदर्शक या हितैशी कदापि न समझें। लोगों का
जाति-धर्म की बजाय उनके कार्य एवं व्यवहार के आधार पर आंकलन करें और उनसे सम्पर्क
बनाए। जातिवाद की खाई को चौड़ा होने से रोकने के लिए प्रतिक्रियावादी होने की बजाय
संयम से काम लेना होगा और ऐसे नेता, लेखक या मार्गदर्शक को समर्थन देने से गुरेज
करना होगा जो एकतरफा ज्ञान देते हों। इस बात का ध्यान तो सदैव रखना होगा कि अच्छा
व्यक्ति कभी दूसरों से नफरत करने या दूसरों को नुकसान पहुंचाने की बात नहीं करता। जो
व्यक्ति या संस्था ऐसा करे उनसे दूर रहना होगा। इस संबंध में मीडिया और कानून की
भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है।
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